चौपड़े की चुड़ैलें
(कहानी : पंकज सुबीर)
(1)
हवेली वैसी ही थी जैसी हवेलियाँ होती हैं और घर वैसे ही थे, जैसे कि क़स्बे के घर होते हैं। कुछ कच्चे, कुछ पक्के। इस क़स्बे से ही हमारी कहानी शुरू होती है। कहानी शुरू तो होती है लेकिन, उसका अंत नहीं होता है। उसका अंत होना भी नहीं है। क्योंकि यह वो कहानी नहीं है जिसका अंत हो जाए। शहर से कुछ दूर यह क़स्बा बसा था। हवेली जर्जर हो चुकी थी। मगर उसे देख कर लगता था कि कभी इसकी शानौ-शौक़त देखने लायक रही होगी। दीवरों के रंग अब उड़ चुके थे। बड़े-बड़े दरवाज़े जिनसे कभी शायद हाथी भी अंदर चले जाते होंगे, वे भी बूढ़े हो चुके थे। उन दरवाज़ों पर काली चीकटें जमा थीं। जब अच्छा समय रहा होगा तब इन दरवाज़ों को तेल पिलाया जाता होगा, रंग रौगन किया जाता होगा। अब समय वैसा नहीं है तो समय ख़ुद ही इन पर चीकट चढ़ा कर रंग रौगन कर रहा है। बड़ी हवेली सूनी थी। सूनी का मतलब वीरान जैसी नहीं थी। बस यह था कि हवेली में कोई चहल-पहल नहीं थी। कुछ हिस्सा गिर चुका था। जो नहीं गिरा था वह भी कब गिर जाए, कुछ नहीं कह सकते थे। उस बचे हुए हिस्से में तीन छायाएँ डोलती रहती थीं। तीन औरतें। उस खंडहर में वह तीन औरतें ही रहती थीं बस। अकेली। तीनों उम्र के तीन अलग-अलग पायदानों पर खड़ीं थीं। सबसे बड़ी वाली पैंतालीस से पचास के बीच की थी। उसके बाद वाली अभी न जवान थी और न बूढ़ी ही थी। यह कह सकते हैं कि लगभग जवान ही थी और तीसरी वाली जवान थी।
हवेली के पीछे कुछ फासले पर एक बाग़ था। बाग़ में फूल-वूल जैसा कुछ नहीं था। असल में यह एक आम के पेड़ों का झुरमुट था। घना झुरमुट। जिसके बीच में एक बावड़ी बनी हुई थी। बावड़ी नहीं थी, बल्कि चौपड़ा था। चौपड़ा मतलब एक ऐसी चौरस बावड़ी जिसमें चारों तरफ से नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हों। नीचे की तरफ जाकर जहाँ पानी भरा होता है, उससे कुछ ऊपर चारों तरफ छोटी छोटी कोठरियाँ बनी हों। चौकोर आकार के चौपड़े में चारों दीवारों पर दोनों कोने से उतरी सीढ़ियाँ अंग्रेजी के वी अक्षर का आकार बना कर एक जगही मिल जातीं। उसके बाद उल्टा वी का आकार बना कर नीचे पानी की तरफ चली जातीं। ऊपर से उतरी सीढ़ियाँ जहाँ पर आकर मिलतीं और फिर से दो हिस्सों में बँटती उसके ठीक नीचे ही यह कोठरियाँ होतीं। उल्टे वी के नीचे। यह कोठरियाँ छिपी रहती थीं सीढ़ियों के पीछे। चारों तरफ की सीढ़ियाँ जहाँ जाकर ख़त्म होती थीं वहाँ नीचे एक चारों सीढ़ियों को मिलाता हुआ एक पत्थर का प्लेटफार्म था। प्लेटफार्म के नीचे पानी और बीच से कोठरी में जाने को सीढ़ियाँ। इस प्रकार के चौपड़े हवेलियों और महलों की महिलाओं के लिए बनवाए जाते थे पहले। बड़े घरों की महिलाएँ इनमें ही जाकर स्नान करती थीं। नीचे बनी कोठरियों में कपड़े बदलतीं थीं और सीढ़ियाँ चढ़कर घर को लौट आती थीं। चौपड़ों में पत्थरों की खूब नक्काशी की जाती थी। कोठरियों के अंदर भी नक्काशीदार आले बने रहते थे। चबूतरे बने होते थे। महिलाएँ चाहें तो कुछ देर विश्राम भी कर लें वहीं पर। जब हवेलियाँ गुलज़ार रहती थीं तो कोठरियों में सोने-बैठने की सारी व्यवस्था रहती थीं। हवेली उजड़ीं तो कोठरियों में बस पत्थर के चबूतरे रह गए। ऊपर से देखने पर यह चौपड़े बहुत खूबसूरत दिखते थे। चारों दीवारों पर सीढ़ियों का डमरू आकार और उस पर बनी कलाकृतियाँ। चौपड़े में भी खूब कलाकारी की गई थी। जगह-जगह पत्थरों पर फूलों की बेलें बनीं थीं। नक्काशीदार खंभे सीढ़ियों के पास खड़े थे। बहुत मेहनत के साथ और बहुत प्रेम से बनवाया गया था इस चौपड़े को। जब बनवाया गया था, तब किसे पता था कि एक दिन इसे इस प्रकार वीरान होना पड़ेगा।
तो आम के बाग में यह चौपड़ा था। उस आम के बाग को नागझिरी कहा जाता था। क्यों कहा जाता था, उसका भी किस्सा है। असल में बाग के चारों तरफ वहले एक फसील हुआ करती थी। उस पत्थर की फसील में जो दरारें थीं, उनमें छोटे मोटे साँप रहा करते थे। चूँकि नाग दरारों में या झिरियों में रहते थे, इसलिए बाग़ का नाम पड़ गया नागझिरी। जब तक हवेली के अच्छे दिन रहे तब तक दरारें भी रहीं और साँप भी। अब न तो फसील बची और न ही साँप बचे हैं। मगर नाम अभी भी है उसका नागझिरी। यह जो नागझिरी बाग है, यह हवेली की संपत्ति है। या यूँ कहें कि हवेली वालों के पास बची हुई आख़िरी संपत्ति। इसी बाग़ के सहारे हवेली अपने आज को बिता रही है। हवेली के पीछे से एक पगडंडी जैसा रास्ता नागझिरी तक गया हुआ था। रास्ते के दोनों तरफ जंगली झाड़ियाँ लगीं थीं। पीले और नारंगी फूलों वाली जंगली झाड़ियाँ, जिनके पत्तों को हाथ में लेकर मसलो, तो तीखी गंध आती थी। यह पगडंडी केवल हवेली के उपयोग के लिए ही थी। यह पगडंडी, जब चौपड़ा बना तो महिलाओं के उपयोग के लिए, उनके आने जाने के लिए बनाई गई थी। इसीलिए इसके दोनों तरफ घनी झाड़ियाँ लगाईं गईं थीं। इतनी घनी, कि हवा भी अंदर आने के लिए रास्ता ढूँढ़े। अच्छे समय में महिलाएँ इसी पगडंडी से होकर स्नान के लिए चौपड़े पर जाती थीं। महिलाओं की हिफ़ाज़त के लिए जंगली झाड़ियों को पगडंडी के दोनो तरफ लगाया गया था। हवेली की महिलाएँ नहाने के लिए जा रही हैं और उनको कोई देख ले, यह हवेलियों को और महलों को कभी मंज़ूर नहीं रहा। बल्कि उनका तो यह भी सोचना था कि हमारी महिलाएँ तो किसी भी सूरत में किसी को दिखाई नहीं दें। पता नहीं कब पगडंडी बनी और कब झाड़ियाँ लगीं लेकिन झाड़ियाँ आज बेहद घनी थीं।
यह तो बात हुई हवेली की। अब बात करें क़स्बे की। तो क़स्बा वैसा ही क़स्बा था जैसा होता है। कुछ बूढ़े थे जो दिन भर चौपाल पर बैठे बीड़ी फूँकते रहते थे और मरने का इंतज़ार करते हुए एक दिन बिता देते थे। यह बूढ़े चौपाल का स्थायी हिस्सा थे। इनके अलावा जो जवान थे या जवान से कुछ आगे की स्थिति में थे, वह खेती किसानी का काम करते थे। और जब खेत पर करने को कुछ नहीं होता था तो यह भी क़स्बे के मंदिर के पीछे के मैदान में बैठ कर गाँजा-चिलम सूँटते थे। इसके अलावा क़स्बे में एक और नस्ल भी थी। वह नस्ल जो अभी जवान नहीं हुई थी। जो जवान होने की तैयारी में थी। मगर जवान होने से पहले ही जवानी के सपने जिनकी आँखों में रात भर ठेला-ठेली करने लगे थे। यह लड़के क़स्बे के पास ही एक दूसरे क़स्बे के सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ने जाते थे। साइकिलों से। और पढ़ कर आने के बाद दिन भर फिर आवारा फिरते थे। माँ-बाप खुद तो पढ़े लिखे नहीं थे जो इनको पढ़ाई-लिखाई के लिए टोकते। उस पर यह कि सरकारी स्कूल में नकल का भव्य आयोजन होता था परीक्षाओं के दौरान। इस नकल के आयोजन में शामिल होने के लिए मास्टरों को फीस देनी पड़ती थी। माँ-बाप यह परीक्षा फीस देकर अपने बच्चों को पास करवा लेते थे। शहर से दूर होने के कारण कभी कोई फ्लाइंग स्कवाड या शिक्षा विभाग का छापामार दल यहाँ तक नहीं पहुँचता था। बच्चे उस स्कूल में जाते थे और साल भर बाद पास होकर अगली कक्षा में आ जाते थे। ख़ैर तो बात यह कि यह लड़के अब जवान हो रहे थे। जवान होती उमर अपने साथ बहुत सारे सवाल लाती है, जो इन लड़कों के पास भी थे। स्कूल से आने के बाद इन लड़कों के पास कोई काम होता नहीं था। घर आकर खााना खाया और उसके बाद निकल पड़े। यह उम्र में लोबान महकने का समय था। लड़के कस्तूरी की तरह अपनी नाभी में महकते लोबान की तलाश में भटकते फिरते थे।
अब बात उस कहानी की जो पूरे क़स्बे में मशहूर थी। असल में नागझिरी के उस चौपड़े को लेकर बहुत सारी बातें फैली हुईं थीं। असल में कहानियाँ तब बननी शुरू हुईं थीं, जब हवेली की दो लड़कियों की चौपड़े में डूबने से मौत हो गई थी। बात पुरानी है। हवेली के अच्छे दिनों की। यह जो लड़कियाँ थीं, यह हवेली के मालिकों में से नहीं थीं। यह हवेली में काम करने वाली थीं। एक दिन अचानक शाम को दोनो की लाश चौपड़े में तैरती हुईं पाईं गईं थीं। कम उम्र की दोनो लड़कियाँ कुछ दिनो पहले ही हवेली में काम करने आईं थीं। तब हवेली में रौनक़ें हुआ करती थीं। हवेली तब सचमुच की हवेली थी, आज की तरह खंडहर नहीं हुई थी। दोनो की मौत पर हवेली ने प्रचारित किया कि चौपड़े का पानी पवित्र पानी है, जिसमें केवल हवेली वालों को ही स्नान करना चाहिए। चौपड़े के पानी की रक्षा नागझिरी में रहने वाले साँप करते हैं। यह साँप केवल हवेली वालों को ही पानी में नहाने देते हैं। इसके अलावा कोई और अगर पानी में नहाने की कोशिश करे, तो साँप उसे डस कर मार डालते हैं। इन लड़कियों ने नियम तोड़ कर चुपचाप चौपड़े में नहाने की कोशिश की इसलिए दोनो मारी गईं। चौपड़ा केवल हवेली वालों के लिए ही है। क़स्बे वालों ने भी विश्वास कर लिया। हवेली के अच्छे दिन थे इसलिए सबने मान लिया कि यह जो लड़कियों की गरदन पर गला घोंटने के निशान हैं, यह भी असल में साँप द्वारा कुंडली में कसने के निशान हैं। नाग देवता ने लड़कियों को डसने के स्थान पर गले में अपनी कुंडली का फंदा कस कर दोनो लड़कियों को मारा है। इस घटना के बाद यह भी प्रचारित हो गया था कि चौपड़ा अभिशप्त है, उसमें केवल हवेली वाले ही नहा सकते हैं। उस समय तो नागझिरी के चारों तरफ फसील थी इसलिए बाहर का तो कोई अंदर जा ही नहीं सकता था, लेकिन अब जब फसील टूट चुकी है, तब भी कोई नहीं जाता उस तरफ। रात को तो बिल्कुल ही नहीं। वैसे भी उस बाग़ में और उस चौपड़े में है ही क्या ऐसा जो कोई वहाँ पर जाए।
रात को नहीं जाने का कारण एक और कहानी है। कहानी जो बाद में बनी जब हवेली के बुरे दिन आ गए। कहानी यह बनी कि वह दोनो लड़कियाँ जो बरसों पहले चौपड़े के पानी में डूब कर मरी थीं, वह दोनो चुड़ैलें बन कर अचानक ही वापस आ गईं। हैरानी की बात यह थी कि उनके मरने और चुड़ैलें बनने में काफी बरसों का अंतर था। ख़ैर तो जब वह चुड़ैलें बन कर आ गईं तो लोगों को उनका पता भी चलने लगा। पता चलने लगा अफवाहों में। किसी को हँसने की आवाज़ आती, तो किसी को चूड़ियाँ खनकने और पायल बजने की आवाज़ आती। किसी-किसी को चुड़ैलें दिखाई भी दे जाती थीं। यह सब रात को ही होता था। कई सारे क़िस्से हवाओं में थे। किसीको अचानक रात को चौपड़े के पास दो लड़कियाँ फुंदी-फटाका खेलते दिख जातीं थीं। किसीको चौपड़े के पास खड़े आम के पेड़ की शाख पर चुड़ैल बैठी दिखती, जो आदमी को देखते ही, शाख से सीधे चौपड़े के पानी में छलाँग लगा देती। छपाक की आवाज़ को वह आदमी इतनी दहशत के साथ अपने क़िस्से में शामिल करता कि सुनने वाले की रूह फना हो जाती। असल में चौपड़े और नागझिरी के कुछ दूर से एक रास्ता गया था खेतों की ओर। उस रास्ते से आने जाने वाले ही क़िस्से बनाते थे। क़िस्से जवान और अधेड़ बनाते, बूढ़ों को और बच्चों को कभी चुड़ैलें नहीं दिखी थीं। बूढ़े और बच्चे तो दिन भर उन क़िस्सों पर चर्चा करते थे। दिन में नागझिरी और चौपड़ा दोनों अपने सूनेपन और ख़ामोशी को समेटे चुपचाप खड़े रहते थे। नागझिरी का वह आमो का बग़ीचा हर साल हम्मू ख़ाँ ठेकेदार हवेली से किराए पर ले लिया करता था। किराए पर लेने के बाद बग़ीचे के फल उसके होते थे। हम्मू ख़ाँ हवेली का ही पुराना मुलाज़िम था, बहुत बच्चा था जब हवेली में काम पर लगा था। बीस-पच्चीस साल तक हवेली में काम किया है उसने। जब हवेली की हैसियत मुलाज़िम रखने की नहीं रही, तो हम्मू ख़ाँ भी बाकियों की तरह हवेली से चला आया। ज़िंदगी चलाने को बस यही काम करता है। आम, अमरूदों, इमलियों और दूसरे फलदार पेड़ों को ठेके पर लेता है और फल बेचकर गुज़ारा करता है। यहाँ भी वह दिन भर बाग़ की रखवाली करता था। ठेके में एक निश्चित राशि और कुछ आम उसे हवेली को देने होते थे। तो आमो के सीज़न में तो हम्मू खाँ बाग़ में दिख जाता था लेकिन, उसके बाद फिर से वीरानी छा जाती थी। तो बाक़ी के साल भर कोई उस तरफ जाता भी नहीं था। हवेली की महिलाओं ने तो चौपड़े पर नहाने के लिए जाना बरसों पहले ही बंद कर दिया था। उन लड़कियों के मरने की घटना के ठीक बाद। अब वह लोग हवेली में ही लगे हैंड पंप से पानी लेकर वहीं नहा लेती थीं। यह हैंड पंप उन लड़कियों के मरने की घटना के बाद पुरुषों ने लगवा दिया था। तो यह भूतिया नागझिरी बाग़ सन्नाटे में डूबा हवेली के पिछवाड़े खड़ा था।
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लड़के धीरे से उतर कर चौपड़े के अँधेरे तरफ वाली मुँडेर के पास खड़े हो गए और चौपड़े के अंदर चल रहा कार्यक्रम देखने लगे। हम्मू ख़ाँ ने लड़कों को देखा, देखता ही रहा, मौन, चुपचाप। बड़ी चुड़ैल ने भी देखा। मगर, चौपड़े के अंदर जो लड़कों के चाचा, भाई, पिता, मामा टाइप के लोग थे, उन्होंने नहीं देखा। देख भी कैसे सकते थे, अँधेरे में जो थे। लड़के चौपड़े के अंदर का दृश्य देख रहे, जहाँ उनके कई रिश्ते, चट्टानों पर वस्त्रहीन बिछे हुए थे। कुछ देर तक देखते रहने के बाद लड़के धीरे से रास्ते की ओर गए और गहरे अँधेरे में समा गए।
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